धर्म एवं दर्शन >> जीवन दर्शन जीवन दर्शनस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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मनुष्य मात्र की दशा और दिशा बदलने व्यावहारिक सिद्धान्तों-नियमों की सुगम प्रस्तुति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जन्म लेना और फिर अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करते-करते मर जाना जीवन की परिभाषा नहीं है—मनुष्य जीवन की तो कतई नहीं। मनुष्य योनि की
शास्त्रों में प्रशंसा ऐसे ही नहीं की गई है। देवता भी मनुष्य जीवन
प्राप्त करने को तरसते हैं। इसका कारण है इस योनि में छिपी अनंत
संभावनाएं। स्वयं को सही रूप में जानना इस जीवन की कृतकृत्यता है। इसे
आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, मुक्ति, निर्वाण, इष्ट प्राप्ति आदि कई
नामों से संबोधित किया जाता है।
इस, उपरोक्त रूप से जीवन कैसे सार्थक हो, इसी की विभिन्न युक्ति-तर्कों द्वारा जानकारी दी गई है इस पुस्तक में। इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों पक्षो की सरल भाषा-शैली में अनूठा समन्वय है।
इस पुस्तक का आधार जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर श्री स्वामी अवेधेशानन्द जी महाराज द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए गए प्रवचन हैं। स्वामीजी की अनूठी शैली की झलक आपको इस पुस्तक के प्रत्येक निःश्वास में मिलेगी।
महाराजश्री के प्रवचनों में से आम साधक के लिए महत्त्वपूर्ण अंशों का संकलन करना तथा उसके भाव और कथ्य को यथारूप में शब्दों में पिरोना साधारण कार्य नहीं है। इसे श्री गंगाप्रसाद शर्मा ने कितनी खूबसूरती से निभाया है, इसका अनुमान आपको इस पुस्तक के पढ़ने के बाद सहजरूप से हो जाएगा।
तत्व जिज्ञासु साधक को यह पुस्तक उनके लक्ष्य और वहाँ तक पहुँचने के साधनों के बारे में जानकारी देकर अपने इष्ट की प्राप्ति में सफल होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
पुस्तक के बारे में आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है।
जीवन की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं। इसे जिसने जैसे देखा, वैसा पाया। सृष्टि-निर्माण के पीछे दृष्टि महत्त्वपूर्ण होती है।
जीवन को परम उपलब्धि मानते हैं भारतीय ऋषि। वे जन्म से लेकर मृत्यु के बीच के अंतराल को ऐसा साधन बनाने की युक्ति बताते हैं, जिससे कोई भी इन दोनों स्थितियों से पार जा सकता है। उसके सभी शोक-भय समाप्त हो जाते हैं।
जिसके सामने जीवन पारदर्शी दर्पण के सामन है, हस्तामलकवत् है, वही सौभाग्यवान है, क्योंकि उसने वह पा लिया है जिससे जीवन को सही परिभाषा मिलती है। यह निर्दोष जीवन की उपलब्धि है। इसका अनुभव करो और मधुर स्वर से उच्च घोष करो—‘सोऽहम्’ (मैं वही हूं), अहं ब्रह्माऽस्मि (मैं ब्रह्म हूं) !
इस, उपरोक्त रूप से जीवन कैसे सार्थक हो, इसी की विभिन्न युक्ति-तर्कों द्वारा जानकारी दी गई है इस पुस्तक में। इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों पक्षो की सरल भाषा-शैली में अनूठा समन्वय है।
इस पुस्तक का आधार जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर श्री स्वामी अवेधेशानन्द जी महाराज द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए गए प्रवचन हैं। स्वामीजी की अनूठी शैली की झलक आपको इस पुस्तक के प्रत्येक निःश्वास में मिलेगी।
महाराजश्री के प्रवचनों में से आम साधक के लिए महत्त्वपूर्ण अंशों का संकलन करना तथा उसके भाव और कथ्य को यथारूप में शब्दों में पिरोना साधारण कार्य नहीं है। इसे श्री गंगाप्रसाद शर्मा ने कितनी खूबसूरती से निभाया है, इसका अनुमान आपको इस पुस्तक के पढ़ने के बाद सहजरूप से हो जाएगा।
तत्व जिज्ञासु साधक को यह पुस्तक उनके लक्ष्य और वहाँ तक पहुँचने के साधनों के बारे में जानकारी देकर अपने इष्ट की प्राप्ति में सफल होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
पुस्तक के बारे में आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है।
जीवन की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं। इसे जिसने जैसे देखा, वैसा पाया। सृष्टि-निर्माण के पीछे दृष्टि महत्त्वपूर्ण होती है।
जीवन को परम उपलब्धि मानते हैं भारतीय ऋषि। वे जन्म से लेकर मृत्यु के बीच के अंतराल को ऐसा साधन बनाने की युक्ति बताते हैं, जिससे कोई भी इन दोनों स्थितियों से पार जा सकता है। उसके सभी शोक-भय समाप्त हो जाते हैं।
जिसके सामने जीवन पारदर्शी दर्पण के सामन है, हस्तामलकवत् है, वही सौभाग्यवान है, क्योंकि उसने वह पा लिया है जिससे जीवन को सही परिभाषा मिलती है। यह निर्दोष जीवन की उपलब्धि है। इसका अनुभव करो और मधुर स्वर से उच्च घोष करो—‘सोऽहम्’ (मैं वही हूं), अहं ब्रह्माऽस्मि (मैं ब्रह्म हूं) !
1
मुखौटों को उतारें
जब हम सत्य को त्याग देते हैं, वास्तविकता से मुँह चुराते हैं, तब दरअसल
हम खुद से दूर भाग रहे होते हैं।
सत्य स्वयं में हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में, स्थिति में ही प्रकट होता है जब हमारी समस्त जानकारियाँ अनुपस्थित होती हैं, हमारा ज्ञान जब कायरत नहीं होता। मन ज्ञान का स्थान है, वह ज्ञान का अवशेष है। जब वह स्थान समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना जब छूट जाता है तब उस स्थिति में भी जो अज्ञान सामने आता है, वह सत्य को जन्म देने में समर्थ होता है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है। आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है, तत्काल उपलब्ध होने वाला कोई भावनात्मक रूप भी नहीं है। सत्य चेतन, सजीव, गति पूर्ण, सतर्क, स्फूर्त है। जब मन सत्य की खोज करता है तब वह परम्परागत प्रणाली, प्रक्रियाओं और पूर्णवर्ती धारणाओं का पालन कर अपने अंदर की चीज को बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजते हुए अत्मसंतोष को प्राप्त कर लेता है। अंततः आदर्श आत्मसंतोष के कारण मन वास्तविकता को नहीं वरन उस अवास्तविकता को ही स्वीकार कर लेता है, जो मिथ्या है।
वास्तविकता वही है जो वास्तव में है, इसका विपरीत नहीं। समस्त ज्ञान के लीन होने पर शाश्वत अनुभूति में एक मिठास का अनुभव होता है। उसी आदत में सत्य है। हम केवल ज्ञान के विषय में ही सोच पाते हैं, ज्ञान के पीछे ही दौड़ते हैं। जब मन ज्ञान, उनके परिणामों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं से आहत नहीं होता है। समस्या यह है कि हममें अवास्तविक क्या है ? लेकिन इस समस्या से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। समस्या का यथावत अवलोकन करने पर समाधान निश्चित है। प्रत्येक समस्या स्वयं में समाधान रखती है और ऐसी कोई पहेली नहीं है जिसका हल न हो। प्रत्येक सामने आ खड़ा होने वाला प्रश्न स्वयं में उत्तर छिपाए बैठा होता है।
मैं क्या हूं, कौन हूं, इसके प्रमाण के लिए दूसरों की क्या आवश्यकता ? स्वयं के प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण कोई औचित्य नहीं रखता। मैं खुद ही प्रमाण हूं। प्रमाण खोजने के लिए हमें जिनका आश्रय लेना होगा वे स्वयं अप्रमाण सिद्ध होंगे।
इसी प्रकार सत्य स्वयं में सरल और आनंदप्रद है। जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण कर लेते हैं, तब हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं। हमारी कठिनाई यह है कि हम यह जाने बिना कि हम अवास्तविक को क्यों प्रस्तुत कर रहे हैं, हम अवास्तविकता को प्रस्तुत करते हैं, यह हमारी विवशता है और सहज में ही हम अपनी सच्ची स्वाभाविकता नष्ट कर लेते हैं। हमें इस दोहरे जीवन से बचना चाहिए।
अनेक विचारधाराएँ, चिंतन एवं प्रकृति सतत हमें बाहरी व्यक्तित्व को चमकाने, सुसंस्कृत करने तथा इसी के साथ उलझे रहने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, जबकि हम स्वयं कुछ और चाहते हैं। हम गहराई में उतरकर अपने धारण किए मुखौटे के पीछे के भीतरी व्यक्ति को पहचाने और उसके वास्तविक स्वभाव को देखें। इस प्रक्रिया में जब आप मन के उठने और लीन होने पर अपने ध्यान को केन्द्रित करके अन्तर्मन में झांकते व्यक्ति को वस्त्रहीन कर देंगे, तो निरोध घटित हो जाएगा और आप अंतर्मन का दर्शन करते व्यक्ति को अर्थात् स्वयं को उपलब्ध हो सकते हैं।
सत्य स्वयं में हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में, स्थिति में ही प्रकट होता है जब हमारी समस्त जानकारियाँ अनुपस्थित होती हैं, हमारा ज्ञान जब कायरत नहीं होता। मन ज्ञान का स्थान है, वह ज्ञान का अवशेष है। जब वह स्थान समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना जब छूट जाता है तब उस स्थिति में भी जो अज्ञान सामने आता है, वह सत्य को जन्म देने में समर्थ होता है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है। आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है, तत्काल उपलब्ध होने वाला कोई भावनात्मक रूप भी नहीं है। सत्य चेतन, सजीव, गति पूर्ण, सतर्क, स्फूर्त है। जब मन सत्य की खोज करता है तब वह परम्परागत प्रणाली, प्रक्रियाओं और पूर्णवर्ती धारणाओं का पालन कर अपने अंदर की चीज को बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजते हुए अत्मसंतोष को प्राप्त कर लेता है। अंततः आदर्श आत्मसंतोष के कारण मन वास्तविकता को नहीं वरन उस अवास्तविकता को ही स्वीकार कर लेता है, जो मिथ्या है।
वास्तविकता वही है जो वास्तव में है, इसका विपरीत नहीं। समस्त ज्ञान के लीन होने पर शाश्वत अनुभूति में एक मिठास का अनुभव होता है। उसी आदत में सत्य है। हम केवल ज्ञान के विषय में ही सोच पाते हैं, ज्ञान के पीछे ही दौड़ते हैं। जब मन ज्ञान, उनके परिणामों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं से आहत नहीं होता है। समस्या यह है कि हममें अवास्तविक क्या है ? लेकिन इस समस्या से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। समस्या का यथावत अवलोकन करने पर समाधान निश्चित है। प्रत्येक समस्या स्वयं में समाधान रखती है और ऐसी कोई पहेली नहीं है जिसका हल न हो। प्रत्येक सामने आ खड़ा होने वाला प्रश्न स्वयं में उत्तर छिपाए बैठा होता है।
मैं क्या हूं, कौन हूं, इसके प्रमाण के लिए दूसरों की क्या आवश्यकता ? स्वयं के प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण कोई औचित्य नहीं रखता। मैं खुद ही प्रमाण हूं। प्रमाण खोजने के लिए हमें जिनका आश्रय लेना होगा वे स्वयं अप्रमाण सिद्ध होंगे।
इसी प्रकार सत्य स्वयं में सरल और आनंदप्रद है। जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण कर लेते हैं, तब हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं। हमारी कठिनाई यह है कि हम यह जाने बिना कि हम अवास्तविक को क्यों प्रस्तुत कर रहे हैं, हम अवास्तविकता को प्रस्तुत करते हैं, यह हमारी विवशता है और सहज में ही हम अपनी सच्ची स्वाभाविकता नष्ट कर लेते हैं। हमें इस दोहरे जीवन से बचना चाहिए।
अनेक विचारधाराएँ, चिंतन एवं प्रकृति सतत हमें बाहरी व्यक्तित्व को चमकाने, सुसंस्कृत करने तथा इसी के साथ उलझे रहने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, जबकि हम स्वयं कुछ और चाहते हैं। हम गहराई में उतरकर अपने धारण किए मुखौटे के पीछे के भीतरी व्यक्ति को पहचाने और उसके वास्तविक स्वभाव को देखें। इस प्रक्रिया में जब आप मन के उठने और लीन होने पर अपने ध्यान को केन्द्रित करके अन्तर्मन में झांकते व्यक्ति को वस्त्रहीन कर देंगे, तो निरोध घटित हो जाएगा और आप अंतर्मन का दर्शन करते व्यक्ति को अर्थात् स्वयं को उपलब्ध हो सकते हैं।
2
सुख भी देते हैं धोखा
प्रतिकूल वस्तु और परिस्थिति के होने पर व्यक्ति के लिए सुख भी दुख का
कारण बन जाते हैं...
सुख की इच्छा सभी करते हैं, पर सुखी कौन है और सुख है कहां ? सुख का उद्भव धर्म के द्वारा होता है। धर्म से ही सच्चा सुख मिलता है। अनेक प्रकार के अस्थायी सुखों की प्राप्ति के बाद जब मानव शरीर मृत्यु का ग्रास बनता है तब सुख साथ नहीं देता। केवल धर्म ही साथी होता है।
पृथ्वी पर राजा से लेकर रंक तक आशा-आकांक्षा के मध्य अस्थिर हैं, ऐश्वर्य, उपलब्धियाँ, धन, बल आदि में भी संतोष ही है। कामनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। अतः धर्म के अनुशीलन में ही परम संतोष है। धर्माचरण से ही इंद्रिय-शक्ति की सम्यक स्फूर्ति, तृप्ति की साधना करने के बाद सभी प्रकार से जगत से बाह्य यथार्थ तत्व को आत्मा में उपलब्ध करने में ही सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मानंद की तुलना में हर ऐश्वर्य तुच्छ हैं।
जगत के सुख सीमित, अस्थायी और धोखा देने वाले हैं। यदि अनुकूल परिस्थिति, वस्तु और पदार्थ व्यक्ति को प्राप्त होते हैं, तब वे सुख के कारण बन जाते हैं और यदि प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति की प्राप्ति हो जाती है तो वे ही दुख के कारण बन जाते हैं।
संसार में अनुकूलता और प्रतिकूलता में परिवर्तन आता रहता है। यह भी सच है कि मनुष्य को हमेशा अनुकूलता प्राप्त नहीं होती और वह चाहत भी है। यही कारण है कि जो दुख देता है। विषयों से उत्पन्न होने वाले सुख और दुख दोनों अनित्य हैं। जिन विषयों से भोगकाल में सुख प्राप्त होता है, उन्हीं विषयों से वियोग की दशा में दुख होता है।
संसार में ऐसा कोई भोग नहीं है जिसका वियोग न हो। जिसका वियोग निश्चित है, वह नाशवान और अस्थिर है और सुख का कारण भी नहीं है। वस्तुतः जगत की वस्तुओं से सुख की प्रतीति किसी धर्म से नहीं अपितु अज्ञान से है। अतएव मानव का कर्तव्य है कि जिस उपाय द्वारा वह मोह से मुक्त होकर आत्म उपलब्धि करा सकता है, वही उपाय करे।
आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन कर्म है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। धर्म क्या है ? जो सब वस्तुओं को धारण करता है। जो धारण किया जाए वही धर्म है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है। अन्य जीव प्रकृति के आधीन हैं। अतः धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल मनुष्य मात्र होने से ही उसे धर्म ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता, क्योंकि आज भी असभ्य देशों में रहने वाले ऐसे लोग हैं जो न तो धर्म से परिचित हैं और न ही धर्म का अनुशीलन करते हैं।
इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि तुच्छ रेत के कण से लेकर पशु-पक्षी ही नहीं, देवताओं तक का धर्म अवश्य है एवं वह धर्म ही धारण किए हुए हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे मनुष्य हैं, और जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं वे मनुष्य शरीर में पशु हैं।
अतः मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्तव्य है। प्रभु ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है। इसी साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठ रचना है। वह शक्ति धर्मज्ञान ही है, किंतु केवल मनुष्यत्व प्राप्त कर लेना ही उन्नति की चरम सीमा नहीं है।
सुख की इच्छा सभी करते हैं, पर सुखी कौन है और सुख है कहां ? सुख का उद्भव धर्म के द्वारा होता है। धर्म से ही सच्चा सुख मिलता है। अनेक प्रकार के अस्थायी सुखों की प्राप्ति के बाद जब मानव शरीर मृत्यु का ग्रास बनता है तब सुख साथ नहीं देता। केवल धर्म ही साथी होता है।
पृथ्वी पर राजा से लेकर रंक तक आशा-आकांक्षा के मध्य अस्थिर हैं, ऐश्वर्य, उपलब्धियाँ, धन, बल आदि में भी संतोष ही है। कामनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। अतः धर्म के अनुशीलन में ही परम संतोष है। धर्माचरण से ही इंद्रिय-शक्ति की सम्यक स्फूर्ति, तृप्ति की साधना करने के बाद सभी प्रकार से जगत से बाह्य यथार्थ तत्व को आत्मा में उपलब्ध करने में ही सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मानंद की तुलना में हर ऐश्वर्य तुच्छ हैं।
जगत के सुख सीमित, अस्थायी और धोखा देने वाले हैं। यदि अनुकूल परिस्थिति, वस्तु और पदार्थ व्यक्ति को प्राप्त होते हैं, तब वे सुख के कारण बन जाते हैं और यदि प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति की प्राप्ति हो जाती है तो वे ही दुख के कारण बन जाते हैं।
संसार में अनुकूलता और प्रतिकूलता में परिवर्तन आता रहता है। यह भी सच है कि मनुष्य को हमेशा अनुकूलता प्राप्त नहीं होती और वह चाहत भी है। यही कारण है कि जो दुख देता है। विषयों से उत्पन्न होने वाले सुख और दुख दोनों अनित्य हैं। जिन विषयों से भोगकाल में सुख प्राप्त होता है, उन्हीं विषयों से वियोग की दशा में दुख होता है।
संसार में ऐसा कोई भोग नहीं है जिसका वियोग न हो। जिसका वियोग निश्चित है, वह नाशवान और अस्थिर है और सुख का कारण भी नहीं है। वस्तुतः जगत की वस्तुओं से सुख की प्रतीति किसी धर्म से नहीं अपितु अज्ञान से है। अतएव मानव का कर्तव्य है कि जिस उपाय द्वारा वह मोह से मुक्त होकर आत्म उपलब्धि करा सकता है, वही उपाय करे।
आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन कर्म है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। धर्म क्या है ? जो सब वस्तुओं को धारण करता है। जो धारण किया जाए वही धर्म है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है। अन्य जीव प्रकृति के आधीन हैं। अतः धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल मनुष्य मात्र होने से ही उसे धर्म ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता, क्योंकि आज भी असभ्य देशों में रहने वाले ऐसे लोग हैं जो न तो धर्म से परिचित हैं और न ही धर्म का अनुशीलन करते हैं।
इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि तुच्छ रेत के कण से लेकर पशु-पक्षी ही नहीं, देवताओं तक का धर्म अवश्य है एवं वह धर्म ही धारण किए हुए हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे मनुष्य हैं, और जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं वे मनुष्य शरीर में पशु हैं।
अतः मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्तव्य है। प्रभु ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है। इसी साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठ रचना है। वह शक्ति धर्मज्ञान ही है, किंतु केवल मनुष्यत्व प्राप्त कर लेना ही उन्नति की चरम सीमा नहीं है।
3
मैं से परिचित हों
सभी समस्याओं के समाधान के बाद देखना ही वास्तव में सही देखना होता है।
दर्शन शब्द का साधारण अर्थ है देखना। इसका पारिभाषिक अर्थ तत्व विज्ञान है। सामान्य अर्थ ही पारिभाषिक अर्थ को स्पष्ट करता है और उसके यथार्थ स्वरूप को प्रकट करता है। मनुष्य ने देखने की शक्ति के साथ जन्म लिया है। जन्म के साथ ही मनुष्य के सामने एक बहुविध, विस्मयकारी वैचित्र्य से भरा हुआ जगत होता है। स्वभावतः मनुष्य की देखने की क्षमता का जितना विकास होता है उतना ही मनुष्य अनुभव करता है कि देखने में दृष्टव्य जगत् के साथ मनुष्य का यथार्थ परिचय नहीं होता और मनुष्य यह अनुभव करता है कि वह देखना संपूर्ण नहीं है।
पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का अक्षुण्ण क्रम देखते-देखते यह प्रश्न उठता है कि इस संपूर्ण क्रम का उद्गम स्थल और विलीनता का केंद्र कहां है ? प्रत्येक पदार्थ का किसी न किसी कारण से उत्पन्न होने का स्वभाव देखकर असंख्य पदार्थों के समिष्ट स्वरूप समस्त जगत के कारण संबंध का निर्णय करके जब तक पदार्थों के स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती, तब तक बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती कि यथार्थ बोध हो गया है।
संपूर्ण दृश्यमान जगत का क्रम देखते-देखते उनके केंद्र में रहने वाले अद्भुत अखंड, नियमश्रृंखला की सत्ता हमारी दृष्टि को आकर्षित करती है। निर्माण एवं ध्वंस के मूल में भी एक ऐक्य, सामंजस्य स्पृहा जन्म लेती है। परमात्मा के उन सारे नियमों को और उनके अंतराल में विद्यमान, नियंत्रण करने वाली शक्ति को भली-भांति जान लिए बिना विकसित बुद्धि को इस बात का संतोष नहीं हो सकता कि संपूर्णता के साथ जगत को देख लिया है। इंद्रियों के विकार, मन के भाव और अवस्थाओं के परिवर्तन, ज्ञान की ह्रास-बुद्धि इन सबमें भी मनुष्य के ‘मैं’ व ‘मेरेपन’ का एकत्व नष्ट नहीं होता। यह ‘मै’ कौन है ? इस ‘मैं’ का भलीभाँति परिचय पाए बिना मनुष्य का स्वयं को देखना, देखना है।
स्वंय के भीतर जिस ज्ञान की प्रेरणा, कर्म की प्रवृत्ति और भाव का मैं अनुभव करता हूँ—ये सब भी कहाँ से आते हैं। मेरे अंदर श्रेय और प्रेय, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का एक भेद-बोध हमेशा विद्यमान है एवं बुद्धि विकास के साथ-साथ इस बोध का भी विकास होता रहता है।
इस भेद का कोई आधार है या नहीं ? यदि है तो उस आधार का स्वरूप क्या है ? मनुष्य के जीवन का आंतरिक श्रेय क्या है ? क्या करने पर मनुष्य की इच्छाओं की निवृत्ति होगी ? इन सभी समस्याओं के समाधान के बिना मनुष्य अपने को अपने आप में अपने परिपूर्ण रूप में नहीं देख सकता। इस प्रकार अपने को और जगत के देखते-देखते बुद्धि के उत्कर्ष के साथ-साथ जिन गंभीर समस्याओं की उत्पत्ति होती है उन सभी समस्याओं का समाधान हो जाने पर देखना होता है तभी वह देखना भी वास्तव में होता है।
इस प्रकार देखने में ‘दर्शन’ शब्द का ही सही तात्पर्य निहित है। इसी का नाम तत्व विज्ञान है। देखने के लिए जैसे इंद्रियों का सुनियत व्यवहार आवश्यक है, इसी के साथ युक्ति विचार भी आवश्यक है। सत्यपुरुषों ने देखा कि विश्व कतिपय वस्तुओं और व्यापारियों के समष्टि नहीं है, क्षुद्र-वृहद, जड़-चेतन और समस्त विश्व प्रपंच का अतिक्रमण करके भी उसकी सत्ता नित्य विद्यमान है। उस परमतत्व को सत्पुरुषों ने ब्रह्म जगत के अनंत रूपों में अभिव्यक्त किया है। ब्रह्म, जो समग्र ज्ञान का भी उत्स भी है।
दर्शन शब्द का साधारण अर्थ है देखना। इसका पारिभाषिक अर्थ तत्व विज्ञान है। सामान्य अर्थ ही पारिभाषिक अर्थ को स्पष्ट करता है और उसके यथार्थ स्वरूप को प्रकट करता है। मनुष्य ने देखने की शक्ति के साथ जन्म लिया है। जन्म के साथ ही मनुष्य के सामने एक बहुविध, विस्मयकारी वैचित्र्य से भरा हुआ जगत होता है। स्वभावतः मनुष्य की देखने की क्षमता का जितना विकास होता है उतना ही मनुष्य अनुभव करता है कि देखने में दृष्टव्य जगत् के साथ मनुष्य का यथार्थ परिचय नहीं होता और मनुष्य यह अनुभव करता है कि वह देखना संपूर्ण नहीं है।
पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का अक्षुण्ण क्रम देखते-देखते यह प्रश्न उठता है कि इस संपूर्ण क्रम का उद्गम स्थल और विलीनता का केंद्र कहां है ? प्रत्येक पदार्थ का किसी न किसी कारण से उत्पन्न होने का स्वभाव देखकर असंख्य पदार्थों के समिष्ट स्वरूप समस्त जगत के कारण संबंध का निर्णय करके जब तक पदार्थों के स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती, तब तक बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती कि यथार्थ बोध हो गया है।
संपूर्ण दृश्यमान जगत का क्रम देखते-देखते उनके केंद्र में रहने वाले अद्भुत अखंड, नियमश्रृंखला की सत्ता हमारी दृष्टि को आकर्षित करती है। निर्माण एवं ध्वंस के मूल में भी एक ऐक्य, सामंजस्य स्पृहा जन्म लेती है। परमात्मा के उन सारे नियमों को और उनके अंतराल में विद्यमान, नियंत्रण करने वाली शक्ति को भली-भांति जान लिए बिना विकसित बुद्धि को इस बात का संतोष नहीं हो सकता कि संपूर्णता के साथ जगत को देख लिया है। इंद्रियों के विकार, मन के भाव और अवस्थाओं के परिवर्तन, ज्ञान की ह्रास-बुद्धि इन सबमें भी मनुष्य के ‘मैं’ व ‘मेरेपन’ का एकत्व नष्ट नहीं होता। यह ‘मै’ कौन है ? इस ‘मैं’ का भलीभाँति परिचय पाए बिना मनुष्य का स्वयं को देखना, देखना है।
स्वंय के भीतर जिस ज्ञान की प्रेरणा, कर्म की प्रवृत्ति और भाव का मैं अनुभव करता हूँ—ये सब भी कहाँ से आते हैं। मेरे अंदर श्रेय और प्रेय, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का एक भेद-बोध हमेशा विद्यमान है एवं बुद्धि विकास के साथ-साथ इस बोध का भी विकास होता रहता है।
इस भेद का कोई आधार है या नहीं ? यदि है तो उस आधार का स्वरूप क्या है ? मनुष्य के जीवन का आंतरिक श्रेय क्या है ? क्या करने पर मनुष्य की इच्छाओं की निवृत्ति होगी ? इन सभी समस्याओं के समाधान के बिना मनुष्य अपने को अपने आप में अपने परिपूर्ण रूप में नहीं देख सकता। इस प्रकार अपने को और जगत के देखते-देखते बुद्धि के उत्कर्ष के साथ-साथ जिन गंभीर समस्याओं की उत्पत्ति होती है उन सभी समस्याओं का समाधान हो जाने पर देखना होता है तभी वह देखना भी वास्तव में होता है।
इस प्रकार देखने में ‘दर्शन’ शब्द का ही सही तात्पर्य निहित है। इसी का नाम तत्व विज्ञान है। देखने के लिए जैसे इंद्रियों का सुनियत व्यवहार आवश्यक है, इसी के साथ युक्ति विचार भी आवश्यक है। सत्यपुरुषों ने देखा कि विश्व कतिपय वस्तुओं और व्यापारियों के समष्टि नहीं है, क्षुद्र-वृहद, जड़-चेतन और समस्त विश्व प्रपंच का अतिक्रमण करके भी उसकी सत्ता नित्य विद्यमान है। उस परमतत्व को सत्पुरुषों ने ब्रह्म जगत के अनंत रूपों में अभिव्यक्त किया है। ब्रह्म, जो समग्र ज्ञान का भी उत्स भी है।
4
सत्य जानेंगे तो स्वयं को पहचानेंगे
सत्य को जानने के लिए अपने धारण किए मुखौटे के पीछे के व्यक्ति को पहचानें।
सत्य हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में अभिव्यक्त होता है जो ज्ञान से रिक्त है। सत्य उस अवस्था में प्रकट होता है जब हमारा ज्ञान कार्यरत नहीं होता। मन ज्ञान का आलय (घर) है। जब आलस्य समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना सब छूट जाता है, तब उस अवस्था में जिज्ञासा अभिव्यक्त होती है, जो सत्य को जन्म देने में समर्थ है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी अनुक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है। आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है। वह चैतन्य सजीव, गतिमय, सतर्क, स्फूर्त है। जब मन सत्य का अन्वेषण करता है, तब वह परंपरागत प्रणाली, प्रतीकात्मक प्रतिक्रियाओं और पूर्ववर्ती धारणाओं का अनुशीलन कर आत्म-प्रक्षिप्त को ही बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजता हुआ आत्म प्रक्षेपण को खोजने लगता है। अंततः आदर्श आत्म प्रक्षेपण के कारण मन यथार्थ को नहीं, पर अयथार्थ को ही स्वीकार कर लेता है, वह मिथ्या है। यथार्थ वही है जो वास्तव में है, उसका कोई विपरीत नहीं। अपितु समस्त ज्ञान के विलीन होने पर जो शाश्वत अनुभूति में मिठास का अनुभव होता है, उसी ज्ञान में सत्य है।
समस्या है कि हममें यथार्थ क्या है ? समस्त भावों और धारणाओं के मध्य में हम जब लक्ष्य का चुनाव कर रहे होते हैं तब हम पर हमारे ही विचारों का प्रक्षेपण होता है। आखिर वह क्या है ? जिसकी खोज में हम जुटे हैं। विशेष रूप से शाति-विहीन में, जहाँ व्यक्ति शांति की खोज के लिए सुख और आश्रय के लिए प्रयत्नशील है, ऐसे में यह जानना नितांत आवश्यक है। सत्य के अभाव में यह जानना निःसंदेह भ्रामक सिद्ध हो सकता है।
हम अपने अस्तित्व को जिस तरह जानते हैं, वह अनेक प्रकार से प्रक्षेपित है। हम अनेक पूर्वाग्रहों, प्रतिबद्धताओं, धारणाओं से स्वयं को जानना चाहते हैं। यह जानकारी अधूरी सिद्ध होती है। हमारी समस्त जानकारियाँ जब मौन में विलीन हो जाएंगी तब हमें सत्य-आलोक प्रकाशित कर देगा। जैसे प्रकाश के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट रहता है, ठीक वैसे ही सत्य के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट रहता है। ठीक वैसे ही सत्य के भाव में जीवन का अर्थ धूमिल पड़ जाता है। परंतु सत्य रूपी सूर्य के उगते ही जीवन के नवसृजन के स्वर मुखरित होने लगते हैं और हमारा यह जीवन पावन मंदिर बन जाता है।
सत्य स्वयं में सरल और आनंदप्रद है। जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण करते हैं तब हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं। हम अयथार्थ प्रस्तुत करते हैं। यह हमारी विवशता है और सहज ही हम अपनी सच्ची स्वाभाविकता नष्ट कर लेते हैं। हमें इस दोहरे जीवन से बचना चाहिए। अनेक विचारधाराएं, चिंतन एवं प्रकृति सतत हमें बाह्य व्यक्तित्व को चमकाने, संस्कारित करने तथा इसी के साथ उलझे रहने के लिए प्रेरित करती है। हम स्वयं कुछ होते हैं और बनना कुछ और चाहते है, लेकिन आवश्यक यह है कि हम गहरा उतरकर अपने धारण किए मुखौटे के पीछे भीतरी व्यक्ति को पहचानें और उसके नाम-स्वभाव को देखें।
सत्य हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में अभिव्यक्त होता है जो ज्ञान से रिक्त है। सत्य उस अवस्था में प्रकट होता है जब हमारा ज्ञान कार्यरत नहीं होता। मन ज्ञान का आलय (घर) है। जब आलस्य समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना सब छूट जाता है, तब उस अवस्था में जिज्ञासा अभिव्यक्त होती है, जो सत्य को जन्म देने में समर्थ है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी अनुक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है। आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है। वह चैतन्य सजीव, गतिमय, सतर्क, स्फूर्त है। जब मन सत्य का अन्वेषण करता है, तब वह परंपरागत प्रणाली, प्रतीकात्मक प्रतिक्रियाओं और पूर्ववर्ती धारणाओं का अनुशीलन कर आत्म-प्रक्षिप्त को ही बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजता हुआ आत्म प्रक्षेपण को खोजने लगता है। अंततः आदर्श आत्म प्रक्षेपण के कारण मन यथार्थ को नहीं, पर अयथार्थ को ही स्वीकार कर लेता है, वह मिथ्या है। यथार्थ वही है जो वास्तव में है, उसका कोई विपरीत नहीं। अपितु समस्त ज्ञान के विलीन होने पर जो शाश्वत अनुभूति में मिठास का अनुभव होता है, उसी ज्ञान में सत्य है।
समस्या है कि हममें यथार्थ क्या है ? समस्त भावों और धारणाओं के मध्य में हम जब लक्ष्य का चुनाव कर रहे होते हैं तब हम पर हमारे ही विचारों का प्रक्षेपण होता है। आखिर वह क्या है ? जिसकी खोज में हम जुटे हैं। विशेष रूप से शाति-विहीन में, जहाँ व्यक्ति शांति की खोज के लिए सुख और आश्रय के लिए प्रयत्नशील है, ऐसे में यह जानना नितांत आवश्यक है। सत्य के अभाव में यह जानना निःसंदेह भ्रामक सिद्ध हो सकता है।
हम अपने अस्तित्व को जिस तरह जानते हैं, वह अनेक प्रकार से प्रक्षेपित है। हम अनेक पूर्वाग्रहों, प्रतिबद्धताओं, धारणाओं से स्वयं को जानना चाहते हैं। यह जानकारी अधूरी सिद्ध होती है। हमारी समस्त जानकारियाँ जब मौन में विलीन हो जाएंगी तब हमें सत्य-आलोक प्रकाशित कर देगा। जैसे प्रकाश के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट रहता है, ठीक वैसे ही सत्य के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट रहता है। ठीक वैसे ही सत्य के भाव में जीवन का अर्थ धूमिल पड़ जाता है। परंतु सत्य रूपी सूर्य के उगते ही जीवन के नवसृजन के स्वर मुखरित होने लगते हैं और हमारा यह जीवन पावन मंदिर बन जाता है।
सत्य स्वयं में सरल और आनंदप्रद है। जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण करते हैं तब हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं। हम अयथार्थ प्रस्तुत करते हैं। यह हमारी विवशता है और सहज ही हम अपनी सच्ची स्वाभाविकता नष्ट कर लेते हैं। हमें इस दोहरे जीवन से बचना चाहिए। अनेक विचारधाराएं, चिंतन एवं प्रकृति सतत हमें बाह्य व्यक्तित्व को चमकाने, संस्कारित करने तथा इसी के साथ उलझे रहने के लिए प्रेरित करती है। हम स्वयं कुछ होते हैं और बनना कुछ और चाहते है, लेकिन आवश्यक यह है कि हम गहरा उतरकर अपने धारण किए मुखौटे के पीछे भीतरी व्यक्ति को पहचानें और उसके नाम-स्वभाव को देखें।
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